...

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नग़्मा-ए-हिजराँ
ये जो नग़्मा-ए-हिजराँ गा रहा हूँ मैं,
अस्ल में खुद की ही सुना रहा हूँ मैं।
ज़र्ब दिल की नासूर बन रही दिन-ब-दिन ,
आंखों से फिर भी सब छिपा रहा हूँ मैं।।
मुझे मालूम है नामुमकिन है अब आना उसका,
फिर भी दिल को झूठी पट्टियां पढ़ा रहा हूँ मैं।
छत तो तोङ दिया था उसने खुद ही कब का,
दीवारें जो बची है थोड़ी सी, वही ढ़ा रहा हूँ मैं।।
एक उदासी है मौसम में उसके न होने से ,
फिर भी यादों की एक महफ़िल सजा रहा हूँ मैं।
दश्त में अब जलाये भी तो क्या जलाये ऐ दीप,
अंधेरो में ही अब गीत महफ़िल को सुना रहा हूँ मैं।।
©dying4her
©AK47
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