...

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कांपती है...
पहाड़ नहीं काँपता,

न पेड़, न तराई,

काँपती है ढाल पर के घर से

नीचे झील पर झरी

दिए की लौ की

नन्ही परछाईं।

स्रोत :
पुस्तक : सन्नाटे का छंद (पृष्ठ 144) संपादक : अशोक वाजपेयी रचनाकार : अज्ञेय प्रकाशन : वाग्देवी प्रकाशन संस्करण : 1997