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बेटी की गाथा
ना मैं हूँ काज़ल की स्याही,
ना हूँ मैं पापी का दाग,
सूरत से हूं नन्ही तितली,
उड़ जाऊ एक पल में।
एक कोख से मैंने जन्म लिया था,
समुद्र के मोतियों को घूट में पिया था,
सलाह मिली थी बाल्यवस्था से ही,
सवारना है मुझे दूसरे घर की चौखट को।
मृगनयनी मैं, हुयी आश्चर्य,
जहा जन्म लिया,
क्यों ना है मेरा वो घर,
सिसक-सिसकर पूछतीं, परंतु कोई ना दे सटीक उत्तर।
हूं मैं बेटी भोली,
जाना है मुझे पिया के घर,
हो रही हूं संस्कारो से विभूषित,
क्या बेटी होना ही है मेरा सबसे बड़ा दंड।
पीती हूं गुलामी की असीम घूट,
बन गयी कलेशों की इकलौती फूट,
क्यों ना तोड़ी मैंने परंपराओं की बेड़ियों को,
जब कहती समाज़ मुझे ईश्वरीय दूत।
हूं मैं पंख विहीन पक्षी,
उड़ना है मुझे बादलों के पार,
गिरकर उठना ही है मेरा पेशा,
क्योंकि बेटी हूं मैं उऋण समीक्षा।
तोड़ू मैं गुलामी की अटूट दीवार,
करती मैं पापियों पर प्रचंड प्रहार,
जी ली अबतक घूट- घूटकर,
अब जाना है असीम अंतरिक्ष के पार।
कालरात्रि, कात्यानि, लक्ष्मी , सरस्वती है मेरे अवतार,
मिथ्या बीज परंपराओं का,करती समाज बेजोड़ हमपर वार,
बेटी होना ना पाप है,
लड़खड़ाते क़दमो की इकलौती माँ का हाथ है।
_NightingaleShree
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