...

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सुनों यह ऊहल क्या कहती..
सदियों से हूँ सींच रही चुहार घाटी व छोटा भंगाल,
उद्गम होता धौलाधार से, ऊहल है मेरा नाम।
छल-२ करती, कल-२ करती, सर्प सा मेरा मार्ग,
कहीं उफनती, कहीं मचलती, कहीं हूँ बिल्कुल शांत।
बहती थी कभी अविरल, मिलती हूँ जाकर ब्यास।
फिर एक दिन कोई कर्नल आया,
बहाव पर मेरे उसने बांध बनाया।
मुझे रोककर, मुझे मोड़कर,
ले जाया गया शानन बस्सी।
स्वतंत्रता को मेरी छीनकर बिजली उसे बनानी थी,
मैंने भी प्रिय मानव के खातिर दी वो बड़ी कुर्बानी थी।
मुझ से बनाई बिजली से पंजाब पूरा जगमगाया,
पर मेरे प्रिय आश्रितों को खाली हाथ ही लौटाया
फिर आया एक इको टूरिज्म का नाम,
जिसे लेने से सारे पाप कर आते थे गंगा स्नान।
नदी को इस देश में मां का नाम है दिया जाता,
शोषण उसी का सबसे ज्यादा है किया जाता।
स्त्री को नोच खाने वाले समाज में,
सुंदर होना एक अभिशाप सा लगता।
मुझे सुंदर होने का मिला यह फल,
सभी ऐसे बरतने लगे जैसे हूँ मैं उनकी रखैल।
जिनके लिए कभी कुर्बानी का भाव मुझमें जागा
आज वो भी कर रहे मुझे अभागा।
कई जलीय जीव कभी करते थे मुझमें वास,
आस पास के स्थलीय जीव भी आते हैं बुझाने प्यास।
जबसे बढ़ गयी है मानव की भूख प्यास,
मुझमें रह गया है मात्र ट्राउट का ही वास।

ऐ मानव तू एक भूल कर बैठा है,
मेरे मौन को मेरी कमजोरी समझ बैठा है।
मां को यदि आता लाड़ प्यार,
तो वही समय आने पर लगाती है फटकार।
सम्भल जा...सम्भल जा.....
© Joginder Thakur