...

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ये मेरी तुम्हारी बात थी
उस रोज तुम्हे मैं रोकना चाहती थी
तुम्हे लेकिन मैंने जाने दिया
सख़्त थी मैं
लेकिन अंदर ही अंदर
पिघल रही थी मैं मोम की तरह
जल रही थी मैं
राख में तब्दील जो होना था
तुम ले गए मेरा मन मेरी आत्मा
अब क्या रह गया था
तुम्हारे जाने के बाद
कोई जान नही पाया
कब जागती आंखों में
एक सैलाब आया
कब गिर गए पत्ते हवा के साथ
पतझड़ सा ठहर गया
कोई जान न पाया
कौन समझता है खामोशी
खिलखिलाती हंसी के पीछे का मौन
कोई नही पढ़ पाया
कैसे कोई जान पाता
मैंने ज़ाहिर ही नही किया
ये मेरी तुम्हारी बात थी l
ये मेरी तुम्हारी बात है l

© Shraddha S Sahu