...

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"गले लग के दीवारों के"
गले लग के दीवारों के मुसलसल
रोने को जी चाहता है
आज तन्हाई के आलम मे,अपने सायें
को,तमाम गम बांटने को जी चाहता है...

बहुत मोहब्बत और एतबार किया
करते थे तुम पर कभी,मगर आज
खुद की मूढ़ता पर,हंसने को जी चाहता है.......

वफ़ा की थी जिनसे उम्मीद कभी
आज उसी बेवफा पर,नफ़ासत
भेजने को जी चाहता है..........

थी कभी उनकी हर बात से
मोहब्बत हमें,मगर आज तन्हाइयों
के पैरहन में गुम हो जाने को जी चाहता है........

© Deepa