...

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जज़्बात से आरी लोग
मुझको इस तरह़ सताते हैं चले जाते हैं
वो मेरे पास में आते हैं चले जाते हैं

तन्हा चलना ही तो दुश्वार हुआ करता है
वो जो ये बात बताते हैं चले जाते हैं

टूटते और बिखरते हैं निभाने वाले
आप तो हल्फ़ उठाते हैं चले जाते हैं

वो ही तूफ़ान क़यामत का सबब होते हैं
जो ज़रा देर को आते हैं चले जाते हैं

मेहरबां होते हैं इक उ़म्र में पर क्या कीजे
बादल ए इश़्क़ हैं, छाते हैं , चले जाते हैं

ऐसे दरियाओं की क़िस्मत में भटकना है "ह़यात"
जो जिधर मुँह को उठाते हैं चले जाते हैं