...

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विपुल उद्गार
अपूर्ण जबतक मैं रहा था लेश भर
तब तू हुई परिपूर्ण खुद ही आप में
क्यूं हो रहा हूं नित्य थोड़ा अल्प मैं
तू बढ़ रही है नित्य विपुल उद्गार में

परिधान संग संयूत तेरा संकोच है
निर्वात भू तपती रही ज्यों रात में...