...

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आख़िर तुम ही क्यों?
आख़िर तुम ही क्यों?

सुबह की चाय लेकर,
शाम की अंगड़ाई में हो तुम;
मंदिर की घंटी से लेकर,
महोल्ले की लड़ाई में हो तुम;
आज गमले में जो जूही खिली है,
उसकी हर कली में हो तुम ;
खेतों की हर फसल, हर एक फली हो तुम;

खान बाबा के इत्र से लेकर ,
मेरे मोहयुक्त मित्र में हो तुम;
सहेलियाँ पूछती हैं हाल तो
तुम्हारे दिए झुमके छनका देती हूं ;
अब हां या ना नहीं कहती ,
बस वो चूड़ियां जो दी थी ,
उन्हें खनका देती हूं||

ये जो तर्क लाते हो तुम रंग का,
तो भला कान्हां का क्या रंग है कहो!
वो समाये हैं कण कण में मेरे,
और तुम मेरे रोम रोम में हो;

और तुम्हारा कहना मुझे "जाना"
वो चाँद तारे तोड़ लाना,
ख्याली बातें हैं माना,
तुम सपनो में ही ले आना,

और आते समय ख़ुदा मिल तो पूछना उनसे मेरा माज़ी,
मिट गए थे लकीरों से तुम मेरे
फिर किस तरह किया उन्हें राज़ी;
लड़ी ख़ुदा से हुई बागी ,
धागे बांधे , मन्नतें मांगी;
आये तुम फिर नज़र मुझे,
और मेरी मोहब्बत हुई इंक़लाबी ||


© VanS