...

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भेष
कर तसव्वुर ख्वाब का ,हो रहा बेसब्र कोना
खो रहा निज सुध बेचारा, भटके होकर गुम बेचारा
रेत सा फिसलत है यह पल,ओढ़ता हर क्षण नव पटु
क्रंदन ,हंसी थे भाव कैसे ,खो चुका हर भाव अब जग
भीड़ मा गुमनाम सा सच , ढूंढता निज सदन तन्हा
फंस रही अचरज मे प्रकृति,चैतन्यता है अब कहां
अंदाज हो चाहे भी कुछ,पर भंगिमा है दीन सी
वाकपटुता का खेल सब , है हर चरित्र अब खोखला
नीति नियम के शतरंज पर,मोहरे कई है ,पर जहां
त्यज कर समस्त कानून को ,है चल रहे हर चाल को
रोचक बड़ा परिदृश्य है,फितूर का सब हर्ष है
है कठिन ऐ मासूमियत,रहना तेरा इस डगर मे
कुचलत,डरत होगी घायल,होगा नही कोई तेरा
अब ढूंढ ले कोई और देश,जहां रहता तेरे सम सा भेष।