...

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वक्त
खुद को खुद से मिले हुए
एक अरसा हो गया
बेवजह हर किसी से
मिलकर आती रही हूं मैं।

कैसे करूं शिकवा
कि वक्त नहीं है
जब हर किसी के लिए
वक्त निकालती रही हूं मैं ।

सामने आईना भी
रख कर देख लिया
निहारते हुए अक्स अपना
किसी और को सोचती रही हूं मैं ।

सुबह वादा करके
शाम को तोड़ देती हूं
खुद से न मिल पाने का फिर
अफ़सोस मनाती रही हूं मैं ।

मुश्किल ये मेरी है
वक्त संजोने का सलीका नहीं आया
बेवजह सभी कामों में खुद को
काबिल साबित करती रही हूं मैं।