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कलयुग की माया कहो या कर्मों का लेखा-जोखा
बेबसी की दुनिया में
अनबसी के नज़ारे हैं
किसी के लिए छप्पन भोग
तो कोई बासी में दिन रात गुजारे हैं
कोई सोया मखमल के बिस्तर पर
तो किसी को फुटपाथ भी नागवारे है
किसी की दुनिया रोशन सितारों से
किसी की दुनिया सिर्फ अंधेरों के सहारे हैं
किसी को मिला बेशुमार
फिर भी खुद को समझते दुखियारे हैं
लोभ मोह के लालच में मन का सुकून उजारे हैं
कोई नहीं देखना चाहता खुद से ऊपर किसी को
किसी जलन में अपना ही काम बिगाड़े हैं
प्रेम अपनापन सब सहुलियत के भरोसे है
बिना मतलब ना तुम किसी के ना हम तुम्हारे हैं
कोई तरसता अपनों के लिए
तो कोई अपनों को ही धिक्कारे हैं
कलयुग की माया कहो या कर्मों का लेखा-जोखा
यहां बिन मांझी के नैया पर सवार है सभी
सबको पता है आखिरी छोर
फिर भी ढूंढते किनारे हैं..
© Diksha Rathi🌻