...

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ग़ज़ल
अंदेशा बिछड़ जाने का होता भी बहुत है
ऐ जान मगर तुझपे भरोसा भी बहुत है

शोलों को बुझा सकती है शबनम की नज़ाकत
मिल जाए अगर वक़्त पे क़तरा भी बहुत है

हंसते हुए चेहरे पे लिखा था ये भी उसके
ये शख़्स किसी दौर में रोया भी बहुत है

कश्ती भी बचा पाई न दरिया की रविश से
कैसे कहूँ तिनके का सहारा भी बहुत है

मैं जाने-चमन हुस्ने-फ़ज़ा यूँ ही नहीं हूँ
माली ने मुझे पाँव से रौंदा भी बहुत है

नफ़रत है जिसे आज मेरे नाम से भी “आलम”
उस शख़्स ने बरसों मुझे चाहा भी बहुत है

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