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एक खयाल
राज़ फिर भी पहोंच गए गैरो तक कैसे,
दोस्त तो हमारे सारे ही मुखलिस थे,
जो बनके फिरते थे नूरानी रूह कभी,
इंसानी शक्ल में सारे ही इब्लिस थे,
अर्के वफा ही उगल दी हम पर उन्होंने,
वो कभी होते जो साहिब ए मजलिस थे,
परवाज़ का जुनून था हम में भी दोस्तो,
हमें छोड़कर सारे शाहीन ओ किर्गीस थे,
जिन्होंने ढाई है वफाओं की इमारत नूर,
असल में मशहूर कातिल मुहंदिस थे!!!
© Noor_313
दोस्त तो हमारे सारे ही मुखलिस थे,
जो बनके फिरते थे नूरानी रूह कभी,
इंसानी शक्ल में सारे ही इब्लिस थे,
अर्के वफा ही उगल दी हम पर उन्होंने,
वो कभी होते जो साहिब ए मजलिस थे,
परवाज़ का जुनून था हम में भी दोस्तो,
हमें छोड़कर सारे शाहीन ओ किर्गीस थे,
जिन्होंने ढाई है वफाओं की इमारत नूर,
असल में मशहूर कातिल मुहंदिस थे!!!
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