हम बदल चुके है।
हम कितने बदल चुके हैं
घर में तो है पर मां के हाथों की रोटी पसंद नहीं आती,
छठ में पापा के लाए कपड़े पसंद नहीं,
सब अपनी पसंद का चाहिए।
घर में मिट्टी के दीप नहीं,
दीपावली के रात का परंपरागत
भोजन नहीं चाहिए,
सब कुछ बदल गया है,
परंपरा कुछ मायने नहीं करता,
विश्वास किसी पर नहीं,
रिश्तों की मर्यादा नहीं,
हां हम बदल चुके हैं।
अमृता
© All Rights Reserved
घर में तो है पर मां के हाथों की रोटी पसंद नहीं आती,
छठ में पापा के लाए कपड़े पसंद नहीं,
सब अपनी पसंद का चाहिए।
घर में मिट्टी के दीप नहीं,
दीपावली के रात का परंपरागत
भोजन नहीं चाहिए,
सब कुछ बदल गया है,
परंपरा कुछ मायने नहीं करता,
विश्वास किसी पर नहीं,
रिश्तों की मर्यादा नहीं,
हां हम बदल चुके हैं।
अमृता
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