...

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कहीं दफन हो के
मुहब्बत की है
इन आंखों को खामोश कैसे करूं
छु रही है शायद ये तुम्हें बहते बहते

सफर की मस्त हवाओं में
कोई अहसास, अपना बनता हुआ
आ रहा है ऐ दिल, सपने गढ़ता हुआ
कब मालूम था, इन राहों में दगा, है लिखा हुआ

अब तो सच में ही दिल कहता है
जिंदगी बड़ी झुठी हो तुम
आवाज़ कहती है फिर से आकर, तुम्हारी
आशा कैसी हो तुम

ओ प्यार, निशान से बने
क्यों दिल में गड़े जाते हो तुम
अब तमन्नाएं भी कहां रह गई
उफनती नदी रह गई हो, जैसे कहीं दफन हो के...।


© सुशील पवार