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मेरा घर देखो
किशोरावस्था में ही लेखक बनने की चाह लिए, सन् 2003 में हरियाणा प्रदेश स्थित अपना गांव 'कैलाश' छोड़कर, 'करनाल' शहर आकर, अकेला ही रहने लगा था। संघर्ष के उसी दौर में अपने तंग से हालातों पर मैंने "मेरा घर देखो" नामक यह कविता लिखी थी। जोकि ख़ूबसूरत निशानी के तौर पर, अंत समय तक मेरे साथ रहेगी। मैं जिस भी कार्यक्रम में गया, वहीं मेरी क़लम के चाहने वालों ने इस कविता को सुनने की भरपूर इच्छा व्यक्त की। अतः आज आप साहेबानों से मुख़ातिब होते हुए आप सभी की ख़िदमत में बड़ी ही शिद्दत से मैं इसे नज़र कर रहा हूं:
====== "मेरा घर देखो" ======
मेरी इच्छा है कि आज मेरा घर देखो,
कैसे कर रहा हूं मैं जीवन बसर देखो,
मेरी इच्छा है कि आज मेरा घर देखो।

हर तरफ़ छाई रहती है ख़ामोशी देखो,
खिड़कियों से आहट करती हवा देखो,
आंगन में खड़े पेड़ के टूटते पत्ते देखो,
चारों पहर में सन्नाटे का आलम देखो,
तन्हाई से नहीं लगता है मुझे डर देखो,
मेरी इच्छा है कि आज मेरा घर देखो।

इधर-उधर टंगे हुए हैं मेरे कपड़े देखो,
रसोई में आओ ड़िब्बे और बर्तन देखो,
दिवारों पे लगे हैं मकड़ी के जाल देखो,
घर में रखे सामान पे जमी है धूल देखो,
छत पे पड़े प्रवासी परिंदों के पर देखो,
मेरी इच्छा है कि आज मेरा घर देखो।

अस्त-व्यस्त पलों में भाग-दौड़ देखो,
गुंबदों के ग़ुरूर को देता हूं तोड़ देखो,
तुम्हें देखने को बेताब है आईना देखो,
ख़ुल्द मिट्टी का करके मुआईना देखो,
अपने आते ही बहारों का असर देखो,
मेरी इच्छा है कि आज मेरा घर देखो।

क़लम के दम पे कर रहा हूं जंग देखो,
हंसता और रोता हूं यादों के संग देखो,
खानपान देखके हो...