प्रकृति और प्रेम
अंतर भी है, अचरज भी है
ये बिन बादल, नभ गरजत भी हैं
लघु-लघु सरिता की बूंदों में
कल-कल,छल-छल प्रवहत भी हैं।।
सूरज भी हैं, चन्दा भी हैं
इस कलि धरा पे, गंगा भी हैं
पर्वत भी हैं, झरने भी हैं
नित नूतन श्रम करने भी हैं
वन, उपवन में नवीन कलियां
गुंजत मधु,मख, भौरे भी हैं
और सूर्यमुखी सी,इसी धरा पर
प्रेम स्वरूपी गलियां भी हैं।।
ये बिन बादल, नभ गरजत भी हैं
लघु-लघु सरिता की बूंदों में
कल-कल,छल-छल प्रवहत भी हैं।।
सूरज भी हैं, चन्दा भी हैं
इस कलि धरा पे, गंगा भी हैं
पर्वत भी हैं, झरने भी हैं
नित नूतन श्रम करने भी हैं
वन, उपवन में नवीन कलियां
गुंजत मधु,मख, भौरे भी हैं
और सूर्यमुखी सी,इसी धरा पर
प्रेम स्वरूपी गलियां भी हैं।।