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विद्यार्थी व्यथा
खेल खेल में शिक्षा हो पर
शिक्षा को खेल समझ बैठे,
अब राजनीति के मंचों पर
तित्तिल सा खूब उलझ बैठे |

न इन्हें पड़ा तेरे रोजी का
न जीवन का न रोटी का,
न दर्द दवाई खर्चे का,
शादी बेटे या बेटी का |

कोई रिक्शा खींचे सड़कों पर
कोई सब्जी बेचे सड़कों पर
मां बाप के सपने कौन सुनें
वो कहर ढहाते लड़कों पर

न नोकरी न रोजगार कहीं
पढ़ रहे लगाये आस यही
आज नहीं तो कल ही सही
लिकलेगा कोई राह कहीं
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