एक ख़त
तुम हमारे क्या होते,
हम तो ख़ुद अपने मुकद्दर में नहीं,
बरसों से कई जगह रह रहे हैं,
बस नहीं रहे तो अपने ही घर में नहीं।।
वैसे घायल करने को तो उसकी नज़रें ही काफी हैं,
ऐसे हमारा सीना छलनी करदे,
इतनी धार तो किसी खंजर में नहीं।।
सर झुकाकर मिलते हैं लोगों से,
ये हमारी तेहज़ीब है,
जबरन हमसे सजदा करवा ले,
इतनी भी जुर्रत...
हम तो ख़ुद अपने मुकद्दर में नहीं,
बरसों से कई जगह रह रहे हैं,
बस नहीं रहे तो अपने ही घर में नहीं।।
वैसे घायल करने को तो उसकी नज़रें ही काफी हैं,
ऐसे हमारा सीना छलनी करदे,
इतनी धार तो किसी खंजर में नहीं।।
सर झुकाकर मिलते हैं लोगों से,
ये हमारी तेहज़ीब है,
जबरन हमसे सजदा करवा ले,
इतनी भी जुर्रत...