...

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हकीकत
"हकीक़त"

मन की शांति भंग हो गई है,
जैसे कलियाँ बेरंग हो गई हैं,
सारी की सारी बलाएँ मेरे संग हो गई हैं,
और ये सब देख के तो जिंदगी भी दंग हो गई है,
ये पृथ्वी नहीं एक मैदान-ए-जंग हो गई है,
कटाक्ष किए जा रहे हैँ, जैसे उड़ती कटी पतंग से गई है,
किस्मत और हकीकत की लड़ाई मेरी..
जैसे शरीर का ही कोई अंग हो गई है।

भागने की इच्छा हो रही है,
ये जिंदगी अब तंग हो गई है,
ये दुःखों, परेशानीयों की तो जैसे उमंग हो गई है।

हर तरफ ताने-बाने, मजाक बनाने, मुफ्त का खाने
प्यार के नाम पर वादों के झूठे फंसाने...,
दूसरों की मेहनत पर खुद की किस्मत चमकाने,
खुद की मुस्कुराहट की खातिर दूसरों की खुशियाँ चुराने,
इन चीजों के अलावा अब कुछ बाकी नहीं है,
यहां तक कि भईया कह दो किसी को तो कहते हैं..
आज राखी नहीं है।

नजरिया बुरा हो चला है सबका..
अब सम्मान लुट चुका है,
सब कुछ खत्म है,
उजालों में थी जिंदगी..
जो अब सिर्फ एक अंधेरी सुरंग हो गई है।

नहीं चाहिए ऐ काफिर तेरा ये सहारा,
आदत है अकेले की, कट जाएगा ये सफर
ये लड़की कमजोर नहीं, फिर से हिम्मत-ए-उमंग हो गई है।

--- वैष्णवी सिंह

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© Vaishnavi Singh