जतन #MERAISHQ
क्यों बैठी हो यूँ सिकुड़े,
पाँवो में अपने हाथ समेटे,
और अपने अंक* में यह (*गोद)
तीन प्रहर की रात समेटे।
बीत गए कितने ही दिवस,
कि चाँदनी मुस्काई है,
क्यों पूर्णिमा से चेहरे पर
रात अमावस छायी है।
आज व्योम* का सूनापन है,(*आकाश)
अट्टाहस कर बोल रहा,
आज कदंब की डाली पर
झूला एकाकी डोल रहा।
एक दृष्टि पाने को तुम्हारी,
बालक से हम तरस गए,
एक स्पर्श पाने को तुम्हारा
अम्बर से घन सा बरस...
पाँवो में अपने हाथ समेटे,
और अपने अंक* में यह (*गोद)
तीन प्रहर की रात समेटे।
बीत गए कितने ही दिवस,
कि चाँदनी मुस्काई है,
क्यों पूर्णिमा से चेहरे पर
रात अमावस छायी है।
आज व्योम* का सूनापन है,(*आकाश)
अट्टाहस कर बोल रहा,
आज कदंब की डाली पर
झूला एकाकी डोल रहा।
एक दृष्टि पाने को तुम्हारी,
बालक से हम तरस गए,
एक स्पर्श पाने को तुम्हारा
अम्बर से घन सा बरस...