सांझ तुम क्यूं आतीं जीवन में।
सांझ तुम क्यूं आतीं जीवन में।
अंधियारा बढ़ता जाता है,
हर पल फिर आंगन में।
हुई रोश़नी मद्धिम,
अब सूरज भी डूब चला है।
थके-थके से पग पड़ते हैं,
पंथी ऊब चला है।
तारे कैसे मिटा सकेंगे,
जो अंधियार गगन में।
सांझ तुम क्यूं आतीं जीवन में।
बोझिल सा अब मन का दर्पण। ...
अंधियारा बढ़ता जाता है,
हर पल फिर आंगन में।
हुई रोश़नी मद्धिम,
अब सूरज भी डूब चला है।
थके-थके से पग पड़ते हैं,
पंथी ऊब चला है।
तारे कैसे मिटा सकेंगे,
जो अंधियार गगन में।
सांझ तुम क्यूं आतीं जीवन में।
बोझिल सा अब मन का दर्पण। ...