...

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कुदरत
हवा चलती गई, बारिश होती गई।
पत्ते झड़ते गए, धूल उड़ती गई।
लोग भूलने लगे , हमे याद आती गई।
कुदरत का निज़ाम छाने लगा,
हर शख्स इतराने लगा।
हम भी जाने लगे, ज़माना भी बुलाने लगा।
धूप बढ़ती गई, और छाव हटती गई।
नाले, नहर, नदिया और पहाड़।
कूचे, सड़के, घर और बहार।
सब के सब अपने चरम की आगोश मैं
सब कुछ देखता था बिल्कुल ख़ामोश मैं।
ये क्यारीया, बाग और बगीचे,
फल, फूल और और मोहल्ले के बच्चे।
खेलते ,खिलाते, झूमते जाते
न जाने किधर गए सब, हंसते गाते।
वो आंगन, वो घर, वो गांव, वो बचपन, वो वक्त, वो ज़िंदगी।
देखते देखते सब सुनी होती गई, जैसे जैसे पुरानी तस्वीर सामने आती गई।
हमारी यादे बढ़ती गई।
© ALBAB QUDDUSI POET