...

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औरत का दर्द
साढे़ चार बजे के अलार्म के साथ,
मशीन की तरह उठ जाती ,
उठने के साथ‌ ही,
मशीन की तरह घर के सारे काम निपटाती,
अपने बच्चों को स्कूल के लिए उठाना,
स्कूल के लिए बच्चों को तैयार करने से लेकर,
उन्हें नाश्ता करवाना, उनके बैग समेटना,
बच्चों के लिए टिफिन तैयार करना,
फिर बच्चों को लेकर, स्कूल के लिए निकलना,
हर दिन की यही थी रूपरेखा,
इस दौड़ा भागी में,
स्वयं कभी नाश्ता न‌ कर पाती।
कभी स्वयं का ध्यान में रख पाती,
हाँ, मशीन भी कभी-कभी,
नखरे दिखाती है,
पर माँ को कहाँ मिलता है,
कि कोई उसके नखरे सहे।
हर दिन उठते समय,
उसके दिमाग में तो,
बस यही होता है,
अगर मैंने जरा भी देरी कर दी,
तो घर के सदस्यों को,
परेशानी न झेलना पड़े।
हर दिन यही सोच,
उसे बीमार रहने पर भी,
फिर से खड़े होने की ताकत देता ।
ऐसा करते-करते उसकी उम्र बीत गई,
न उसने कभी अपना ख्याल रखा,
न अपनी सेहत का,
आज जब बच्चे बड़े हो गए,
सब अपने अपने नई सोच में डूब गए।
उसके पास अपना कहने के लिए
कोई नहीं,
बस वो है, और उसकी तन्हाई।
हाँ, उस तन्हाई का साथ देती,
सिर्फ उसकी बीमारियाँ।
डॉ अनीता शरण।