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विकास / विनाश
कैसे बहे अब नीर, सरित जल सूख रहे ।
कासे कहे वह पीर, रेत सब निकसि गए ।।
सूना हुआ श्रृंगार, जंगल काट रहे ।
झर-झर झरत पहाड़, महल सब दरक रहे ।।
ओजोन परत भयी क्षीण, जीव सब विवश भये ।
ताप सहा न जाए, आग अब बरस रही ।।
अंधाधुंध खनिज को दोहन,
सिमट रहे भंडार, सम्पदा घटत गयी ।
जनसंख्या की बाढ, जरूरत बढ़त गयी ।।
कैसा है ये विकास, विनाश की ओर चले ।
महाशक्ति टकराव, अस्त्र अब गरज रहे ।।
मद में चूर मनुष्य, विवेक अब खोय रहे ।
एक विधाता आस, जो कल्याण करे ।।
परमपिता परमेश्वर, त्वं शरणम् अहम
© Nand Gopal Agnihotri