...

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" ज़िन्दगी जीने का सलीका "
एक बार कोटरी से मुझे फ़रमान आया
तुरंत हाज़िर होने का पैग़ाम सुनाया
मेरे वहां पहुंचने पर जज साहब ने इल्ज़ाम सुनाया

कहा ज़िंदगी ने यह मुक़दमा किया है तुम पर
कि ज़िंदगी भर झूठ बोलता रहा
दिल में चुभा था कांटा और तू फ़ूल बोलता रहा
चेहरे पर मुस्कान से तू ने सबको दिया है धोखा
तेरा क्या है कहना
तुझको भी मिलता है मौका

मौका मिलने पर मैंने भी अपनी दलील सुनाई
मेरी बातें सुनकर जज साहब की आंखें भर आई

माना कि झूठ बोलना पाप है
मगर हर वक़्त सच बोलना भी कहां का इंसाफ़ है
वह सच किस काम का जिसे बोलने से अपने रूठ जाते हैं
वह सच किस काम का जिसे बोलने से रिश्ते टूट जाते हैं
जिसने दिया है दर्द वही इल्ज़ाम लगा रहा है
चेहरे पर मेरी मुस्कान देखकर जलन खा रहा है

अब आप ही जज साहब फैसला सुनाइए
कौन है दोषी यह सब को बतलाइए
इतना सुनते ही जज साहब का दिल भर आया
बड़ी ही रूहानी आवाज से फैसला सुनाया
तू तो मासूम है तेरा कहां कोई दोष रे
तूने तो ज़िंदगी जीने का सलीका सिखाया
भगवान भी नहीं बच पाए थे ज़िंदगी के खेल से
तू तो फिर भी इंसान है तेरा कहां मेल रे
-पवन वर्मा