बेटियाँ विदा हो जाती हैं तो, पर छोड़ जाती हैं अपने मनको बाबुल की देहरी पे ही
बेटियाँ विदा हो जाती हैं तो,
पर अपने को बाबुल की देहरी पर ही छोड़ जाती हैं।
फिर बेचारा मन सिसकता रह जाता है वहीं देहरी पर ही,
वो चाह कर भी अपने क़दम उस देहरी से आगे बढ़ा नहीं पाती है।
वहीं से सिसकते हुए देखती रहती है अपना गुजरा हुआ वक़्त।
देखती रहती हैं माँ - पा को शाम की चाय पीते हुए,
उनकी आपस की नोक - झोंक को मुस्कुराते हुए,
रोते - रोते खिलखिला पड़ती है वो, दिल चाहता है
उनके नोक - झोंक में शामिल हो जाए,
पर वो अपने क़दम देहरी से आगे नहीं बढ़ा पाती है,
सिसकती हुई वहीं खड़ी रह जाती है।
फिर देखती है वो, भाई - बहनों को नोक - झोंक करते हुए,
लड़ते- झगड़ते हुए, फिर एक दूसरे को मनाते हुए, वो भी
चाहती है फिर से शामिल हो जाए उनमें, फिर उसे याद आता है
वो तो अब पराई हो गयी है, और रुक जाती हैं सिसकते हुए वहीं
देहरी पे। फिर देखते ही देखते आ जाता है त्योहार का मौसम,
फिर वो देखती हैं सभी...