...

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दायरा
वाकिफ़ हूं मैं
उन सारी बातों से
जो कैद कर रखी हैं
वक्त ने ख़ुद में यूं ही...
सुना रहा लफ्ज़ दर लफ्ज़
वो कहानियां उन बातों की
कतरा-कतरा ख़र्च कर रहा खुद को
कहानियां खरीदने में...

कहीं किसी कब्र में
इक अरसे से दफ़न हैं
कुछ अधूरी मुलाकातें,
छोड़ आए थे हम जिन्हें
ज़िंदगी के किसी मोड़ पर,
वक्त की कमी के बहाने से...

किसी कफत में हैं
आज भी कुछ यादें
जो रिहाई चाहती ही नहीं,
पकड़ रखा हैं उन्होंने
वक्त के दामन का इक छोर
अपने मायूस हाथों से...

इस मकड़जाल की गिरफ्त में है
वजूद, हर जज़्बात का
हर बीतता लम्हा और और
जकड़ता जा रहा है...
सिकुड़ता जा रहा है
दायरा, मेरा तुम्हारा
दुनिया का...


© आद्या