...

9 views

ये मानकर...
करता भी क्या मैं किसी की बात का बुरा मानकर
जमाने की बद्दुआओं को मैंने लिया, दुआ मानकर...

अक्सर अपने ही निकलते हैं रक़ीब कोई और नहीं
जिन पर करते हैं भरोसा, हम अपना सगा मानकर...

अब कोई गुरेज नहीं मुझको, उसके दिए जख्मों से
उसके नमक भी रगड़ता हूं ज़ख्मों की दवा मानकर...

किसी से बयां नहीं करते किस्से उसकी बेवफाई के
हम तो देखते हैं उसकी संगदिली को वफ़ा मानकर...

हर्गिज़ नहीं था, कि हम अनजान थे उसके पैतरौं से
बस उसका दिल बहलाए रखा उसकी अदा मानकर...

जरूरी नहीं है कि हर कहानी मुकम्मल ही हो जाए
क्यूँ ना अंजाम को लिया जाए उसकी रजा मानकर...

शिकवा नहीं, मगर अफसोस है उसकी संगदिली का
मैं फिर भी देखता हूं नसीब को उसकी वजह मानकर...

यकीं पुख्ता रखना चाहिए, हमेशा अपने एतबार पर
हमने देखे हैं ,पत्थर को भी पूजते हुए ख़ुदा मानकर...

अब भूल भी जा, तू उदासियों के अंधेरों को "नवीन"
हर जलते हुए सूरज को देख एक नई सुबह मानकर...
नवीन सारस्वत ©