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प्रात का परिहास।
ये सुबह की ठंडक,
हाथ पांव को ठंडा कर रही है।
सूरज आंखों में चुभ रहा है,
हवा के साथ आई मिट्टी की खुशबू,
दम घोट रही है।
बरगद के शाखाएं,
कारागार बना रही हैं।
ये खिले पुष्प,
खिल खिला के हंस रहें हैं मेरे ऊपर।
ये प्रात का परिहास,
कानो में गूंज रहा है।
हृदय की गति तेज है,
और सांसे धीमी।
विचार अंदर लड़ रहे हैं।
अभी जीवन जीत जायेगा,
किंतु हमेशा तो नहीं जीत सकता।
© Prashant Dixit
हाथ पांव को ठंडा कर रही है।
सूरज आंखों में चुभ रहा है,
हवा के साथ आई मिट्टी की खुशबू,
दम घोट रही है।
बरगद के शाखाएं,
कारागार बना रही हैं।
ये खिले पुष्प,
खिल खिला के हंस रहें हैं मेरे ऊपर।
ये प्रात का परिहास,
कानो में गूंज रहा है।
हृदय की गति तेज है,
और सांसे धीमी।
विचार अंदर लड़ रहे हैं।
अभी जीवन जीत जायेगा,
किंतु हमेशा तो नहीं जीत सकता।
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