मुठ्ठी खोलो हे विधाता
दिन हमारा रात भी अब
देखो करवट ले रही है,
हम सिरहाने रो रहे ये
देखो कैसे सो रही है,
उन दिनों से इन दिनों तक
का सफ़र अब बस हुआ,
उन आंसूओं से इन ग़मों तक
का सफर अब बस हुआ,
क्यों तुम्हारे कर्म में बस
ग़म के दुब को उगाना?
क्यों तुम्हारे कर्म में ना
खिलते शबनम को बिछाना?
क्यों तुम्हारा कर्म बस
अब ओट में ले...
देखो करवट ले रही है,
हम सिरहाने रो रहे ये
देखो कैसे सो रही है,
उन दिनों से इन दिनों तक
का सफ़र अब बस हुआ,
उन आंसूओं से इन ग़मों तक
का सफर अब बस हुआ,
क्यों तुम्हारे कर्म में बस
ग़म के दुब को उगाना?
क्यों तुम्हारे कर्म में ना
खिलते शबनम को बिछाना?
क्यों तुम्हारा कर्म बस
अब ओट में ले...