...

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मुठ्ठी खोलो हे विधाता
दिन हमारा रात भी अब
देखो करवट ले रही है,
हम सिरहाने रो रहे ये
देखो कैसे सो रही है,

उन दिनों से इन दिनों तक
का सफ़र अब बस हुआ,
उन आंसूओं से इन ग़मों तक
का सफर अब बस हुआ,

क्यों तुम्हारे कर्म में बस
ग़म के दुब को उगाना?
क्यों तुम्हारे कर्म में ना
खिलते शबनम को बिछाना?

क्यों तुम्हारा कर्म बस
अब ओट में ले चोट देता?
क्यों तुम्हारा कर्म रोज
कष्टों से भरा ही भेंट देता?

पर तुम में गुण है तुम गुणी हो
लो साध लो जैसे भी चाहो,
हम है दुर्बल मूक भी है
लो बांध लो जैसे भी चाहो,

पर हम छड़िक है, आज है बस
हो कल के तुम ही जन्म दाता,
हमे हमारा आज देदो
मुठ्ठी खोलो हे विधाता,

कभी आओ बैठें साथ मे
देखें रात कैसे हो रही है,
तुम्ही देख कर हमको बताना
खुशियाँ कैसे खो रहीं हैं,

हाँ, दिन हमारा रात भी अब
देखो करवट ले रही है,
हम सिरहाने रो रहे ये
देखो कैसे सो रही है...

© आदर्श चौबे