...

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महफिलें मेरे चैन-ओ-सुकूं की💔
कि, मेरे छत के कोने वाली दीवार पर अक्सर हमारी महफिलें जमती हैं,
जहां ख़ूब शोर करते हैं हम
दिल के अन्दर हर दहलीज पर जाकर,
उसके अरसों से बंद पड़े, धूल जमे हर
दरवाज़ों को तोड़कर हम बेतहासा हंसते हैं, चीखते हैं चिल्लाते है, और
वहां किसी की औकात नहीं होती जो हमें कोई भी रोक सके, क्यूंकि
मेरी हर चीख़ ख़ामोश होती है, और मेरी महफिलों में भी कोई भी मेरे ख़िलाफ नहीं होता
समझता है हर कोई वहां हमें
मेरा आसमाँ, मेरी ज़मीं
मेरा आफताब, मेरा आबशार
मेरी नदियां, रूहानी हवाएं
मेरे हर टूटे ख्वाबों की तरह आसमाँ में उड़ते आज़ाद परिन्दे
मेरी ख़ामोशियाँ, मेरी तन्हाईयाँ
मेरी कोई गहरी चीख़ जो मेरे अलावा और कोई भी नहीं सुन सकता
मेरा अपना महताब, मेरे बदन को ठंडक देने वाला उस महताब का समां
मेरी मौत के भाई की तरह दिखने वाला गहरा घना-सा काला अंधेरा, और
और हाँ, इन सबके साथ सिर्फ मैं
सिर्फ मैं, जहां जहां का सुकूं मिलता है हमें
वो सुकून जो मेरे रूह को छूती है

© Kumar janmjai